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उ꣡प꣢ प्र꣣क्षे꣡ मधु꣢꣯मति क्षि꣣य꣢न्तः꣣ पु꣡ष्ये꣢म र꣣यिं꣢ धी꣣म꣡हे꣢ त इन्द्र ॥४४४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप प्रक्षे मधुमति क्षियन्तः पुष्येम रयिं धीमहे त इन्द्र ॥४४४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । प्र꣣क्षे꣢ । प्र꣣ । क्षे꣢ । म꣡धु꣢꣯मति । क्षि꣣य꣡न्तः꣢ । पु꣡ष्ये꣢꣯म । र꣣यि꣢म् । धी꣣म꣡हे꣢ । ते꣣ । इन्द्र ॥४४४॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 444 | (कौथोम) 5 » 2 » 1 » 8 | (रानायाणीय) 4 » 10 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र नाम से जगदीश्वर को सम्बोधित किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) मधु बरसानेवाले जगदीश्वर ! हम (ते) तुझे (धीमहे) अपने अन्तःकरण में धारण करते हैं। तेरे (मधुमति) मधुर (प्रक्षे) आनन्द के झरने में (क्षियन्तः) निवास करते हुए, हम (रयिम्) आनन्दरूप धन को (पुष्येम) परिपुष्ट करें ॥८॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर की उपासना से उसके आनन्द के झरने में अपने-आप को नहलाते हुए हम धन्य हों ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रनाम्ना जगदीश्वरः सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) मधुवर्षक जगदीश्वर ! वयम् (ते) त्वाम् (धीमहे) स्वान्तःकरणे धारयामः। डुधाञ् धारणपोषणयोः। लटि ‘छन्दस्युभयथा। अ० ३।४।११७’ इत्यार्द्धधातुकत्वात् शपोऽभावः। तव (मधुमति) मधुरे (प्रक्षे) आनन्दनिर्झरे। पृषु सेचने धातोः औणादिकः क्सः प्रत्ययः। (क्षियन्तः) निवसन्तः। क्षि निवासगत्योः, तुदादिः। वयम् (रयिम्) आनन्दरूपं धनम् (पुष्येम) पुष्णीयाम ॥८॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वरस्योपासनया तदानन्दनिर्झरे स्वात्मानं स्नपयन्तो वयं धन्या भवेम ॥८॥

टिप्पणी: १. साम० १११५।